पंजाबी कहानी : आज तक

>> गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013



पंजाबी कहानी : आज तक(14)

नवतेज सिंह(1925 - 1981)

पंजाबी कहानी के एक सशक्त कथाकार। मनोविज्ञान में एम.ए. तक की शिक्षा ग्रहण कर अपने पिता गुरबख्श सिंह की तरह ही इस लेखक ने पंजाबी साहित्य को कई यादगार कहानियाँ ीं। पिता के बाद पंजाबी की 'प्रीतलड़ी' साहित्यिक पत्रिका का संपादक के तौर पर काम देखते रहे। इस पत्रिका में इनका नियमित छ्पने वाला स्तंभ 'मेरी धरती, मेरे लोग' काफ़ी चर्चित रहा। एक पत्रकार के रूप में सन् 1977 में पंजाब सरकार के शिरामणी पत्रकार अवार्ड से आप सम्मानित भी हुए। 'देश-वापसी'(1955), 'नवीं रुत'(1958), 'बासमती की महिक'(1960), चानण दे बीज'(1962) और 'भाइयां बाझ'(1974) इनके प्रमुख कहानी संग्रह हैं।


संदेशा
नवतेज सिंह
अनुवाद : सुभाष नीरव


...आप तो जानते हो सरदार जी, आज़ादी से पहले का मैं इस रूट पर बस चला रहा हूँ। तब आधे से ज्यादा राह कच्चा होता था। अब तो आख़िर तक पक्की सड़क की बादशाही है। तब शहर से बाहर हुए नहीं और बस, फिर क्या, बिजली का लाटू खत्म... और अब ईश्वर की कृपा से सारे रास्ते ही लाटुओं की झिलमिल और कई जगहों पर बंबों की घूँ-घूँ...।
      ... और अब तो एक बहुत बढ़िया कानून बन गया है। हमें आदेश हो गया है कि बारह बरस से कम उम्र के लड़के-लड़कियों को स्कूल जाते समय या छुट्टी होने पर घर लौटते समय बस में मुफ्त चढ़ाया जाए।
      ...हाँ, कई तो शक करते हैं कि यह कानून वोट डलने तक ही लागू है, बाद में कोई नहीं पूछेगा।
      ...हाँ, सरदार जी, मैं तो एक ज़माने से बालकों को अपनी बस में चढ़ाता रहा हूँ, तब भी जब मेरी सारी रूट पर कसम खाने को एक स्कूल नहीं हुआ करता था। अब तो आज़ादी के बाद ईश्वर की कृपा से बड़े स्कूल खुल गए हैं। यह बात अलग है कि पढ़ने वालों की गिनती से इन स्कूलों की गिनती बहुत कम है, पर कई डरैवर बड़े अड़ियल होते हैं जी... उन्हें अब इस कानून के कारण बच्चे चढ़ाने ही होंगे
      ...मुझे एक बार की बात याद आ रही है। तब अभी यह दो मील का टुकड़ा कच्चा ही होता था। मुझे मुहरका ताप चढ़ गया। मेरी जगह सुरैण सिंह डरैवर आया। शिखर दुपहरी किताबें उठाये बच्चे नंगे पाँव तपते रहते, पर वो बाप का बेटा सुरैण सिंह बस ही न रोके। बच्चे भी बड़े शरारती होते हैं। उन्होनें इस कच्चे रास्ते की पुलिया की ईंटें निकाल दीं। बहुत परेशानी हुई, पर सुरैण सिंह ने आगे के लिए कानों को हाथ लगा लिए और बच्चों को रोज बस में चढ़ाने लग पड़ा। जिस सुरैण सिंह से अड्डे पर कंट्रोलर सहमते थे, उसको छोटे-छोटे बच्चों ने बंदा बना दिया।
      ...बगल में बस्ता दबाये, नंगे पैरों वाले बालकों को जब बस में बैठा ले, तो वो मीठा-मीठा आपकी तरफ ताकते हैं। उनके चेहरों पर छाई खुशी देखकर पल भर को ताज़ा ताज़ा हुए चालान का दुख भी बिसर जाता है। और यह भी बिसर जाता है कि पहली तारीख कब की चढ़ी हुई है और दफ्तर की ओर से बुलाये जाने का अभी कोई अता-पता नहीं। कसम रब की, कोई बढ़िया से बढ़िया वलैती शराब भी क्या गम गलत करेगी !
      ...जब से यह नया कानून बना है, बहुत सारे लड़के छुट्टी होने पर नहर के पुल के करीब आम के पेड़ों के नीचे बैठ कर बस का इंतजार करते रहते हैं। कोई कोई तो वहीं बैठकर घर के लिए मिले सवाल निकालने लग पड़ता है। कोई घास पर यूँ ही टेढ़ा होकर लेट जाता है। और जब मैं पुल पर पहुँचकर उनके लिए बस रोकता हूँ, तो वे नाचते-कूदते मुझे घेर लेते हैं। और मैं उनसे कहता हूँ, ''मैं तुम्हें बस में किसी लिहाज से नहीं चढ़ा रहा। अब हमारा देश आज़ाद हो गया है और पढ़ने वाले बेटे-बेटियों को बस में मुफ्त सवारी का हक दे दिया गया है।''
      ... मेरी ज़िन्दगी के बारे में पूछते हैं, सरदार जी ? ज़िन्दगी खूब गुज़री है और खूब गुज़र रही है। हमारे इस पेशे में ज़िन्दगी रोज नई होती रहती है, नित्य नए लोगों से वास्ता जो पड़ता रहता है। गाँव से शहर में संदेशे पहुँचाते हैं, शहर से गाँववालों के लिए कई चीज़ें लेकर जाते हैं।
      ... इस रूट पर बहुत पुराने समय से चलते होने के कारण संदेशों के आदान-प्रदान और चीज़ों के लाने-ले जाने की भरमार रहती है। पर मैं भी कभी मना नहीं करता। ज़रा-सी परेशानी से दूसरे का इतना काम हो जाता है। और लोगों के चेहरों की सुखद याद रात को इस तरह नींद लाती है कि ऐसा लगता है कि अपने टब्बर से दूर बस की कड़ी छत पर नहीं बल्कि फूलों की सेज पर सोया होऊँ।
      ...संदेशे और वस्तुएँ पूछते हो सरदार जी! संदेशों और चीज़ों की अनेक किस्में हैं। कोई नतीजे वाले दिन अख़बार छिपाकर मंगवाता है, कोई बीमार बीवी के लिए टीके मंगवाता है, किसी के घर में कोई बहुत ऊँची नाक वाला मेहमान आया हुआ होता है जिसकी सेवा के लिए शहर से फल, सब्जी मंगवाये बिना गुज़ारा नहीं होता। कभी शहर के बड़े अस्पताल में किसी का सगा-संबंधी दाख़िल होता है, उसके लिए घर का दूध पहुँचाना पड़ता है। और फिर गाँव की हर मौसम की नियामतें - गन्ने, सरसों का साग, डेले और अन्य बहुत कुछ किसी का किसी के लिए शहर पहुँचाना होता है। शहर वाले अड्डे पर इस गाँव के एक अच्छे हलवाई की दुकान है, उसी के हवाले सबकुछ कर देते हैं। आगे जिसका संदेशा होता है या जिसकी चीज़ होती है, वह खुद आकर ले जाता है।
      ...आपके जैसे पढ़े-लिखे नौजवानों के लिए तो कभी-कभार जूड़े सजाए, एनकों वाली जवान लड़कियों के संदेशे भी ले जाते हैं जी ! अब कबूतरों के हाथ नहीं, डरैवरों के हाथ संदेशे आते हैं।
      ... आपको मैं नाम नहीं बताता। कबूतरों ने भेद छिपाकर रखने की बड़ी अच्छी परंपरा डाली है। हम डरैवर इस परंपरा का उल्लंघन नहीं करते। एक दिन एक बहुत सुंदर-सी लड़की शहर के बस-अड्डे पर मुझे आपके जैसे गाँव के एक अच्छे पढ़े-लिखे लड़के के लिए चिट्ठी पकड़ा गई। जब मेरी बस आपके गाँव पहुँची, वह लड़का वहाँ पहले से ही खड़ा था। उसने चिट्ठी लेकर मेरी तरफ इस तरह देखा मानो मैं उसके लिए सात स्वर्ग ले आया होऊँ। अगली सुबह वह लड़का बस चलने से दस मिनट पहले ही मेरी बस में आ बैठा। उसके हाथ में सफेद और गुलाबी कंवल के फूल थे। इन फूलों जैसी ही चमक उसके मुँह पर भी थी। पहले जब भी वह शहर जाता था, दौड़ते-भागते हुए ही बस पकड़ता था और खीझा-खीझा-सा होता था। आज जैसा उसका चहकता-चमकता चेहरा पहले कभी नहीं देखा था।
      ... मेरी बस में इतने बरस हज़ारों मुसाफिर चढ़े-उतरे होंगे। चीजें आई-गई होंगी, पर ऐसे चेहरे वाला कभी कोई नहीं चढ़ा था, कंवल के फूल कभी कोई लेकर नहीं आया था।
      ...अगले मोड़ के बायीं ओर जो गिल्लों का पोखर है, वह सारे का सारा कंवलों से ही भरा पड़ा है। चार-पाँच कनाल जगह होगी। पर यहाँ के लोग ये कभी नहीं कहते कि कंवल लगा रखे हैं। बल्कि कहते हैं, 'भें(कमल ककड़ी) लगा रखी है।' और सावन में कई कई बोरी यहाँ से निकालकर मेरी बस में लादते रहते हैं, कमल ककड़ियाँ शहर भेजी जाती हैं। लेकिन आज तक कंवल के फूल कोई मेरी बस में नहीं ले गया था।
      शहर में जब बस पहुँची, वह चिट्ठी वाली लड़की इस कंवल वाले लड़के का इंतज़ार कर रही थी। शाम को आखिरी बस पर वही लड़की उस लड़के को छोड़ने आई। अब कंवल के फूल उस लड़की के हाथ में थे।
      सभी सवारियाँ बैठ गईं, सामान और बहुत कुछ छोटा-मोटा लाद लिया गया। परंतु वे दोनों आखिर तक बाहर चुपचाप खड़े रहे। एक दूसरे को निहारते रहे। दोनों की क्या अजब हसरत थी या प्यास थी जिसे वे आखिरी कतरे तक पी लेना चाहते थे। सरकती बस में लड़का चढ़ा, पर फिर भी पीछे की ओर देखता रहा।
      ...कविता ? हमें कहाँ आती है लिखनी जी ? हाँ, कविता पढ़ने का शौक ज़रूर है।
      ...कहानियाँ भी पढ़ता हूँ, पर पता नहीं जैसी ज़िन्दगी में नित्य नई घटती देखते हैं, वैसी कहानियाँ लिखने वाले क्यों नहीं लिखते।
      ... हाँ, यह ठीक है। हमारी नित्य की मुसाफ़िरी वाली ज़िन्दगी में बहुत कुछ घटता रहता है। यदि मुझे कहानी लिखनी आती होती तो मैं बहुत कुछ कलमबद्ध करता। मेरी इन कहानियों में हुनर का तो पता नहीं, पर आपकी कसम, वे ज़िन्दा ज़रूर लगतीं।
      ...नहीं, यदि मुझे कहानी लिखनी आती तो मैं सबसे पहले कंवल के फूलों वाले लड़के और लड़की की कहानी न लिखता। एक दूसरी कहानी लिखता। एक छोटे-से लड़के, बस आठ-नौ बरस के बालक ने अपने पिता के पास पहुँचाने के लिए मुझे एक बार संदेशा दिया था। इस लड़के और इस संदेशे की कहानी मैं सबसे पहले लिखता।
      यह उन दिनों की बात है जब इस इलाके के गाँवों में नई नई बिजली आई थी। मेरा नाचने को मन करता था- बिजली, मेरे लोगों के लिए रौशनी ! पर लोग मेरी तरह नाच क्यों नहीं रहे, यह मेरी समझ से बाहर था।
      इन्हीं दिनों एक दिन नहर के पुल के पास से गुज़रते हुए मैंने बस रोकी तो एक आठ-नौ बरस का बालक मुझे अपने पिता के लिए एक संदेशा दे गया। अपनी ज़िन्दगी में यही एक संदेशा शायद मैं पूरा नहीं कर सका था।
      ... यह बात नहीं कि यह मुझे याद नहीं रहा था। याद तो यह मुझे तब भी होगा जिस घड़ी मैं इस दुनिया से विदा हो रहा होऊँगा। और सबकुछ भले ही भूल जाए, वे कंवल के फूल भी बेशक भूल जाऊँ, परंतु इस संदेशे की कसक सदैव ज़िन्दा रहेगी। दरअसल, इस पूरे संदेशे को पचाने का साहस ही मुझ में नहीं हुआ था।
      हाँ, तो मैं कह रहा था - यह उन दिनों की बात है जब नई नई बिजली हमारे इलाके के गाँवों में आई थी। आपको याद होगा, आपके गाँव के अड्डे पर बिजली के एक ठेकेदार ने दुकान खोली थी। ठेकेदार के मिस्त्री के पास नरैणा काम किया करता था। उसी नरैणे के पुत्र ने यह संदेशा मुझे दिया था। नरैणे का गाँव नहर के साथ लगता है। आपके गाँव में तो वह रिजक का मारा आया हुआ था।
      ...हाँ, नरैणे के पुत्र ने जो संदेशा मुझे दिया था, वही मै आपको बताने जा रहा था। नहर के पुल के पास जब मैंने बस को रोका तो यह बालक मेरे पास आया। बोला, ''भाजी, मेरे बापू को आप जानते हो न ?'' उसने इतने सहज-स्वभाव में मुझसे पूछा मानो वह बापू की पीछे छूट गई कोई वस्तु उस तक पहुँचाने के लिए मुझे देने आया हो। फिर उसने कहा, ''जहाँ आखिर में आपकी बस जाकर खड़ी होती है, वहीं बिजली की एक दुकान पर मेरा बापू काम सीखता है। दुकान तो इस वक्त बंद होगी, पर रात में वह सोता भी दुकान में ही है। आप भाजी उसको कह देना कि मेरी माँ कहती थी - आज भी हम आटा उधार लेकर आए हैं।''
      वह बालक तो जैसे आया था, वैसे ही सहज-स्वभाव लौट गया, पर मैं पूरे रास्ते सोचता रहा - अगर बिजली का काम सीखने वाले इस नरैणे के घर कोई दानी अपने पल्ले से बिजली का लाटू लगवा भी दे, तो नरैणे के लिए यह रौशनी किस काम की ? उधार लिया आटा गूंधती अपनी बीवी और कुछ दिन बाद की खाली परात और अपने पुत्र का भूखा-प्यासा मुँह देखने के लिए बिजली के लाटू की क्या ज़रूरत थी !
      ... बिजली आ गई है, बड़ा अच्छा हुआ है, सरदार जी! पर रौशनी होने में अभी देर है!

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आत्मकथा/स्व-जीवनी



पंजाबी के एक जाने-माने लेखक प्रेम प्रकाश का जन्म ज़िला-लुधियाना के खन्ना शहर में 26 मार्च 1932(सरकारी काग़ज़ों में 7 अप्रैल 1932) को हुआ। यह 'खन्नवी' उपनाम से भी 1955 से 1958 तक लिखते रहे। एम.ए.(उर्दू) तक शिक्षा प्राप्त प्रेम प्रकाश 'रोज़ाना मिलाप' और 'रोज़ाना हिंद समाचार' अख़बारों में पत्रकारिता से जुड़े रहे। 1990 से 2010 तक साहित्यिक पंजाबी त्रैमासिक पत्रिका 'लकीर' निकालते रहे। लीक से हटकर सोचने और करने में विश्वास रखने वाले इस लेखक को भीड़ का लेखक बनना कतई पसन्द नहीं। अपने एक इंटरव्यू में 'अब अगर कहानी में स्त्री का ज़िक्र न हो तो मेरा पेन नहीं चलता' कहने वाले प्रेम प्रकाश स्त्री-पुरुष के आपसी संबंधों की पेचीदा गांठों को अपनी कहानियों में खोलते रहे हैं। यह पंजाबी के एकमात्र ऐसे सफल लेखक रहे हैं जिसने स्त्री-पुरुष संबंधों और वर्जित रिश्तों की ढेरों कामयाब कहानियाँ पंजाबी साहित्य को दी हैं। इनकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि मनुष्य मन की सूक्ष्म से सूक्ष्मतर गांठों को पकड़ने में सफल रही हैं।
      कहानी संग्रह 'कुझ अणकिहा वी' पर 1992 मे साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त यह लेखक अस्सी वर्ष की उम्र में भी पहले जैसी ऊर्जा और शक्ति से निरंतर लेखनरत हैं। इनके कहानी संग्रह के नाम हैं - 'कच्चघड़े'(1966), 'नमाज़ी'(1971), 'मुक्ति'(1980), 'श्वेताम्बर ने कहा था'(1983), 'प्रेम कहानियाँ'(1986), 'कुझ अनकिहा वी'(1990), 'रंगमंच दे भिख्सू'(1995), 'कथा-अनंत'(समग्र कहानियाँ)(1995), 'सुणदैं ख़लीफ़ा'(2001), 'पदमा दा पैर'(2009)। एक कहानी संग्रह 'डेड लाइन' हिंदी में तथा एक कहानी संग्रह अंग्रेजी में 'द शॉल्डर बैग एंड अदर स्टोरीज़' (2005)भी प्रकाशित। इसके अतिरिक्त एक उपन्यास 'दस्तावेज़' 1990 में। आत्मकथा 'बंदे अंदर बंदे' (1993) तथा 'आत्ममाया'( 2005) में प्रकाशित। कई पुस्तकों का संपादन जिनमें 'चौथी कूट'(1996), 'नाग लोक'(1998),'दास्तान'(1999), 'मुहब्बतां'(2002), 'गंढां'(2003) तथा 'जुगलबंदियां'(2005) प्रमुख हैं। पंजाबी में मौलिक लेखक के साथ साथ ढेरों पुस्तकों का अन्य भाषाओं से पंजाबी में अनुवाद भी किया जिनमें उर्दू के कहानीकार सुरेन्द्र प्रकाश का कहानी संग्रह 'बाज़गोई' का अनुवाद 'मुड़ उही कहाणी', बंगला कहानीकार महाश्वेता देवी की चुनिंदा कहानियाँ, हिंदी से 'बंदी जीवन'- क्रांतिकारी शुचिंदर नाथ सानियाल की आत्मकथा, प्रेमचन्द का उपन्यास 'गोदान', 'निर्मला', सुरेन्द्र वर्मा का उपन्यास 'मुझे चाँद चाहिए' तथा काशीनाथ सिंह की चुनिंदा कहानियाँ आदि प्रमुख अनुवाद कृतियाँ हैं।
सम्मान : पंजाब साहित्य अकादमी(1982), गुरूनानक देव यूनिवर्सिटी, अमृतसर द्वारा भाई वीर सिंह वारतक पुरस्कार(1986), साहित्य अकादमी, दिल्ली(1992), पंजाबी अकादमी, दिल्ली(1994), पंजाबी साहित्य अकादमी, लुधियाना(1996), कथा सम्मान,कथा संस्थान, दिल्ली(1996-97), सिरोमणि साहित्यकार, भाषा विभाग, पंजाब(2002) तथा साहित्य रत्न, भाषा विभाग, पंजाब(2011)

सम्पर्क : 593, मोता सिंह नगर, जालंधर-144001(पंजाब)
फोन : 0181-2231941
ई मेल : prem_lakeer@yahoo.com


आत्म माया
प्रेम प्रकाश

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव


'डेड लाइन' वाली भाभी
जब कहानी 'डेड लाइन' की फिल्म बनाने वाली फिल्मी नायिका दीप्ति नवल के साथ मेरा सौदा तय हो गया तो वह किसी मुकदमे के सिलसिले में अमृतसर आई। फिल्म की स्क्रिप्ट लिखने की सलाह करने के लिए उसने मुझे फोन करके वहाँ रिट्ज़ होटल में बुला लिया।
      पहले उसने मुझे लाउंज में ही बिठा लिया और चाय-कॉफ़ी मंगाने लगी। फिर किसी का शोर सुनकर घबराकर उठ खड़ी हुई। मुझे बड़े हॉल में ले गई। वहाँ एक मेज़ पर हम बैठ गए। कॉफ़ी का आर्डर दिया। वह फिर उठ खड़ी हुई- 'नहीं, यहाँ भी शोर है।' वहाँ नवधनाढ़्य उज्जड शहरी व्यापारी ऊँची आवाज़ में बातें कर रहे थे। वह बेचैन थी। वह मेरी तरफ़ मुँह करती तो माथे के बल हटाकर मुस्कराहट ले आती। उसने बताया कि असल में वह होटल का कमरा छोड़ चुकी है। उसे मुझसे बातें करने के बाद चले जाना है।
      हम फिर लाउंज में आ बैठे। एक दो बातें करते हुए उसके चेहरे पर मुस्कराहट आई। परंतु वह मुझे वैसी दीप्ति बिलकुल नहीं लगी, जैसी मैंने फिल्मों में देखी थी... खिले चेहरे वाली। खूबसूरज... अच्छी सेहत वाली और प्यार करने वाली।... उसके पतले जिस्म पर बग़ैर बाजू की कसी हुई शर्ट थी। साधारण-सी जींस भी कसी हुई थी। कद छोटा। चेहरे पर लकीरों का जाल-सा उभर रहा था, जो और दो-एक साल में साफ़ दिखाई देने वाला था। क्या वह कहानी की नायिका के तौर पर जचेगी ?... मैं सोचता रहा।
      जब हम अच्छी तरह से टिक गए तो वह पूछने लगी कि इस कहानी के पीछे की असली कहानी क्या है ? डेड लाइन की नायिका असल में कौन थी ? आपको कहाँ मिली ?... मैं बताता रहा। हम जो भाषा बोल रहे थे, उसमें अंग्रेजी और हिंदी के बहुत से शब्द थे। मैंने बताया कि वह जालंधर में ही रहती थी। उसका पति रेलवे में पैटी आफ़ीसर था। उसका एक बेटा था। घर में अन्य कोई नहीं था। काम करने वाली आकर चली जाती थी।
      नहीं, वह उम्र में मेरे से बड़ी नहीं थी, बल्कि कुछ वर्ष छोटी ही थी।
      हाँ, वह बहुत सुन्दर थी। कम से कम मुझे लगती थी। उसका जिस्म भरा-भरा था। उसका नंगा जिस्म भी सुन्दर था।
      नहीं, हमारे बीच रिश्ते की सीमा कहीं भी नहीं थी। सब सीमाएँ पार कर गए थे हम। पहली दो या तीन मुलाकातों में ही हमकों लगने लगा था कि हम एक-दूजे को प्रेम करने के लिए ही पैदा हुए हैं।
      हाँ, कई बार। कितनी बार हम अपने अपने परिवारों को छोड़ने की योजनाएँ बनाते थे। पर कोई लोकलाज या मानवता का सवाल था जो हमको रोक लेता था। हम अपने दूसरे सदस्यों के साथ अन्याय नहीं कर सकते थे।
      यह सिलसिला सवा दो या ढाई साल चला। फिर, बस फिर उसके पति का तबादला हो गया। रतलाम में। नहीं, फिर नहीं मिल सके। तीन चार साल बाद वह मर गई। कैंसर हो गया था।... यूटरस का। नहीं, मैं भी मिलने नहीं गया। मुझमें पैसे-धेले का इतना सामर्थ्य नहीं था कि रतलाम जाता।... नहीं, पता नहीं। उसका बेटा आया था। किसी रिश्तेदार के संग।... मैं उसके साथ क्या बात कर सकता था। वह मिलकर चला गया।... हाँ, उसने मुझे कई ख़त लिखे थे। मैं उन्हें पढ़कर फाड़ देता था। उसकी दी हुई तस्वीरें मैंने छिपाकर किसी दोस्त के घर में रखी थीं। वह दोस्त जब इंग्लैंड जाने लगा तो मुझे वापस कर गया था। अब तो मैंने उन्हें भी फाड़ दिया है।
      कहानी में मैंने उसे आनंद परिवार बताया है। आनंद खत्री होते हैं। मध्यवर्गीय आर्य समाजी परिवार के। अच्छे गुज़ारे वाला परिवार। ससुर रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी है।
      नहीं, असल में वह एक सिक्ख परिवार था। नारंग अरोड़ों का। उसका पति तो मोना था, पर उसका श्वसुर जो गाँव से कभी-कभी आता रहता था, वह सिक्ख था। अमृतधारी। बहुत नेक इन्सान था। हमारी किसी बात में दख़ल नहीं देता था। शक भी नहीं करता था। वह ड्राइंग रूम में होता था और हम किचन में प्यार कर रहे होते थे।... मैं उसके प्यार में इतना पागल हो गया था कि एक बार मुझे अपने दोस्त को लेकर स्वयं सायकियाट्रिस्ट के जाना पड़ गया था। मैं बहुत अबनॉर्मल-सा हो गया था। मुझे अख़बार के दफ्तर में काम करना कठिन हो गया था। मैं उर्दू अख़बार के न्यूज़ डेस्क पर सब-एडीटरी करता था। दो सौ ख़बरें याद रखनी पड़ती थीं। रोज़ की रोज़ ग़लती का हिसाब हो जाता था। मालिकों के साथ अक्सर झगड़ा हो जाता था।
      असल में, थ्रोट-कैंसर का मरीज़ उसका देवर मेरी कल्पना ने उसके साथ जोड़ा था। वह किसी दूसरे घर का था। वह बहुत देर से मेरे अन्दर पैदा होता रहता था।... असल में, वह मेरे बहुत ही करीबी दोस्त ओम प्रकाश पनाहगीर का साला था। उसको अचानक पता चला था कि उसको थ्रोट कैंसर है। उन दिनों कैंसर के बारे में नई नई बात चली थी। वैसे वह बहुत सेहदमंद था। वह ऐसे महकमे में नौकर था जहाँ रिश्वत आम चलती थी। वे उच्च कुल के ब्राह्मण थे, पर उसको मीट-शराब की आदत थी। कैंसर होने पर मेरे दोस्त ने उसके विषय में मुझे बताया कि एक बड़ी उम्र की विधवा औरत के साथ उसके संबंध हैं। अपने मरने की बात सुनकर वह शराब, मीट-मछली और उस औरत में डूबने लग पड़ा था।... हाँ, मेरा घर बीच में था। मेरा दोस्त पनाहगीर आते-जाते मेरे पास चाय पीते हुए उस लउके की बातें बता जाता था।
      हाँ, बिलकुल... वह अपने बहनाई को सबकुछ बता देता था। उस औरत की गुप्त बातें भी।
      एक दिन दिल फेल होने से उस लड़के का बाप गुज़र गया। दोनों साला-बहनोई गंगा में फूल प्रवाहित करने गए। रात में वे एक शहर के होटल में रुके। उन दोनों ने शराब पी और मछली खाई। फिर वह लड़का लौटते हुए एक शहर में रंडियों के बाज़ार में चला गया।... जब वे मृतक की गति करवाने के लिए पहोवा जाकर क्रिया वाले दिन लौटे तो भी उन्होंने पी रखी थी। लड़के ने पगड़ी बंधवा कर...। खैर, यह अलग कहानी है। मैंने अपने पात्र के लिए उसकी कुछ बातें लेकर अपने अंदर जज्ब कर लीं।
      तीन महीनों बाद वह लड़का मर गया था। पर मरने से एक दिन पहले भी वह अपनी प्रेमिका के साथ सोया था। यह बात मुझे बेहद हैरान करने वाली लगी थी।
      जी, हाँ। वह लड़का मुझे भी मिला करता था। मेरे घर भी आया करता था। मैं अपने मित्र के साथ उसके घर भी कई बार गया था। मैंने उसकी दोस्त औरत भी देखी थी। वह ज़रा भारी ज़िस्म की सुन्दर स्त्री थी। रंग साफ़ नहीं था, पर जिस्म दिलकश था। वह कम बोलती थी। मैंने बहाना बनाकर उससे बात भी की थी।... वह लड़के के मरने पर नहीं आई थी। उसकी अस्थियाँ प्रवाहित करवाने मैं अपने दोस्त के संग गया था।
      जब मैंने यह कहानी लिख ली तो मैंने इसे अपनी दोस्त औरत को पढ़वाया था। उसको पसंद नहीं आई थी। ''बस, ठीक है' कहकर उसने लौटा दी थी। मुझे लगा था कि इसे अपने पात्र में से वो खूबियाँ नहीं मिलीं, जो वह अपने अन्दर महसूस करती होगी।... उन्हीं दिनों वह रतलाम चली गई। मैंने उसकी एक फोटो अभी भी छिपाकर रखी हुई है।
      मेरी बातें समाप्त होने पर दीप्ति ने मुझे वह कहानी सुनाकर मेरे होश उड़ा दिए, जो वह फिल्म के लिए तैयार कर रही थी। उसने उस परिवार को ब्राह्यण और जागीरदार किस्म के उच्च वर्ग में रख लिया था। फिर कहानी चलती हुई 'भाभी' के देवर का बच्चा होने और तीसरी पुश्त तक चली गई थी। जन्म-जन्मांतर के प्यार के बंधनों की कहानी।... दीप्ति ने स्त्री पात्रा के बीच से सोचों और संवेदनाओं के इतने नए पहलू जोड़ लिए थे कि मैं तो कल्पना भी नहीं कर सकता था। औरत के कामुक व्यवहार में इतनी छिपी हुई इच्छाओं की इतनी बारीक परतें भी होती हैं, यह मेरी सोच से बाहर की बात थी। उसकी कहानी सुनने के बाद मैंने उससे पूछा, ''आप कहानियाँ भी लिखते रहे हो कभी ?''
      उसने कहानी और कविता दोनों लिखी थीं। वह स्वयं स्क्रिप्ट राइटर थी। कोई फिल्म स्टार भी इतनी प्रतिभा की मालिक हो सकती है ? यह सोचते हुए मैं लौट आया था।
      असल में मैं दीप्ति के कुरेदने वाले सवालों से ऊब गया था। शाम काफ़ी हो चुकी थी। मुझे जालंधर लौटना था। दीप्ति से पीछा छुड़वाने के लिए मैंने उस औरत का जो अंत बताया उसके अनुसार वह रतलाम चली गई थी और कैंसर की रोगी होकर मर गई थी। परंतु असली कहानी तो कुछ और ही थी। इससे पहले वाला हिस्सा भी कुछ और ही था। मैं जो थोड़ी-बहुत बातें बता सकता हूँ, वे इस प्रकार हैं -
      जिस ब्राह्मण स्त्री ने मुझे पुराणों और हिंदू धर्म के अनुष्ठानों का ज्ञान और हर प्रकार का बेहिसाब प्यार दिया, उस राम कली से टूटकर कुछ महीने मैं बड़ा घरेलू-सा जीव बना घूमता रहा। मुझे उसके पति और अपने मित्र के गुज़रने और उस विधवा से दूर होने का बहुत सदमा लगा था। जब भी फुरसत होती थी, मैं कॉफी हाउस में जा बैठता था। नक्सली लहर पूरी तरह उठ खड़ी थी। दिमाग में आग भर गई थी। जबरन सरकार का और अख़बार के मालिकों का विरोध करने और किसी से लड़ने को दिल करता रहता था। मैं बहस करता यूँ ही लड़ पड़ता था। बात बात में गालियाँ बकने की आदत-सी पड़ गई थी। ऐसी मानसिक अवस्था में एक औरत अपने फोटोग्राफर दोस्त के साथ कॉफी हाउस में कॉफी पीती हुई मिली। वह फोटोग्राफर था तो बदसूरत-सा, पर कलाकार बढ़िया था। काम करते हुए सहगल के गाने गाता रहता था। मुझे उसके साथ इतनी सुंदर औरत के बैठने पर हैरानी हुई थी। मेरे साथ उसका हल्का-सा परिचय हुआ था। वह जाते समय मुझे अपने घर आने की रस्मी-सी दावत दे गई थी, जो मैं भूल गया था।
      एक दिन रिक्शा पर माडल टाउन की तरफ जाती हुई मिल गई। मैं साइकिल पर था। उसने इशारा करके मुझे रोक लिया। कहने लगी, ''मुझे तुम्हारी पत्रिका का चंदा देना था।'' मैं चंदा लेकर चलने लगा तो उसने डरते-झिझकते बताया कि वह भी कविता लिखती है। फिर वही तकाज़ा, ''कभी घर आओ। सुनाऊँगी।''
      उसने पचास का जो नोट मुझे दिया था, उसी पर अपने घर का पता लिख दिया। मुझे दफ्तर पहुँचने की जल्दी थी। दूसरे दिन वह फोटोग्राफर मेरे दफ्तर में आकर मुझे संकेत से बुलाकर छत पर ले गया। बोला, ''आपकी एक फोटो चाहिए, किसी को।'' दो स्नैप लेकर वह चला गया। मुझे उस औरत का अधिक ख़याल ही न आया।
      एक दिन काम को मन नहीं लग रहा था। मैंने बिना कारण दफ्तर से छुट्टी ले ली। कॉफी हाउस गया। कोई मित्र नहीं था। कुछ वकील या पत्रकार बैठे खा-पी रहे थे। मैं माडल टाउन की मार्किट की दायीं तरफ चला गया।
      उस नंबर का कोने का प्लाट बहुत बड़ा और टेढ़ा-सा था। बीच में दो मकान थे। बायीं ओर वाला बंद पड़ा था और कोने वाला जो छोटा था, खुला हुआ था। वह छोटे वाले मकान में थी। घर बहुत साफ़-सुथरा था। कीमती फर्नीचर और पर्दों वाला। मुझे देखकर वह बरामदे में आ गई थी। मैं कीमती कालीन पर बूट रखते हुए डर गया था। मैंने बूट एक तरफ उतार दिए थे। उसने हल्की ठंड रोकने वाला ग्रे सूट पहन रखा था। उसकी सातेक बरस की बेटी सोई पड़ी थी। शायद बीमार थी।
      वह वैसी ही चाय का हॉफ सैट बनाकर ले आई, जैसी हम प्लाज़ा या ग्रीन में बैठकर पीते थे। लेकिन उसकी क्रॉकरी कीमती थी। चाय पीते हुए मैंने देखा, उसने लम्बे ड्राइंगरूम के दो शो-केसों में कीमती वस्तुएँ सजाकर रखी हुई थीं। एक तरफ गुरुओं के चित्र थे और दूसरी तरफ शोभा सिंह की सोहणी लटक रही थी। दीवारों पर बाज़ार में बिकती अन्य तस्वीरें भी टंगी हुई थीं। ड्राइंगरूम में से दिखाई देते किचन में कोई अधेड़-सी औरत रसोई का काम कर रही थी। वह काम करने वाली माई थी।
      मेरे दिमाग में कामरेडों वाला शब्द आया- बुर्जुआ और मैं खुद ही हँस पड़ा। वह अपनी नोट बुक उठा लाई तो मुझे पता चला कि उसका नाम दीपक नारंग था। उसकी कविता समाज-सुधार वाली या बड़ी रोमांटिक थी। जैसे कोई विहरन प्रेम में घुलती चीख-पुकार या रुदन कर रही हो। शिव कुमार बटालवी जैसी। बीमार बच्ची के जागने और रोने पर मैं उठ का चल दिया तो उसने मुझे कुछ कविताएँ छापने के लिए दे दीं।
      मैंने उसकी एक कविता 'लकीर' के नए अंक में अंत में जहाँ स्थान खाली मिला, लगा दी। पूरी पत्रिका को डाक में डालने का काम समाप्त कर मैं एक सुबह पत्रिका की एक प्रति उसको देने चला गया। सुबह के दस बजे थे। सूरज की तपिश से ठंड कम हो गई थी। घर में वह मेकअप करके तैयार बैठी थी। काम करने वाली किचन में थी। घंटी बजाकर जब मैं अंदर घुसा तो वह किताब मेज़ पर रखकर प्रसन्न चित्त मेरी ओर यूँ बढ़ी जैसे किसी से हाथ मिलाना होता है या गले लगाना होता है।
      वह पहले पत्रिका और फिर उसमें छपी अपनी कविता देखकर बहुत प्रसन्न हुई। चाय के साथ मुझे बिस्कुट लेने के लिए विवश करती रही। वह शरत चंद्र का कोई नॉवल पढ़ रही थी। हमने कुछ बातें शरत चंद्र की नायिकाओं की कीं। वह बात बात पर यूँ ही भावुक-सी हो जाती और गहरा नि:श्वास लेती। उसके घर में बहुत कुछ था, जो बड़े खाते-पीते घरों में हुआ करता है। इस हद तक कि फ्रिज, बड़ा-सा टेप रिकार्डर, रेडियो और कैमरा भी पड़ा दिख रहा था। उसका पति न अधिक पढ़ा हुआ था और न ही किसी बडे पद पर था।
      करीब पौने घंटे बाद जब काम करने वाली चली गई तो मुझे बाथरूम जाने की इच्छा हुई। साफ़-सुथरे बाथरूम से लौटकर आया तो उसका लिबास बदला हुआ था। उसने हल्का गरम गाउन पहना हुआ था। उसने अपनी चुटिया खोलकर बालों को कंधों पर बिखरा रखा था। वह इस तरह खड़ी थी मानो मेरी प्रतीक्षा कर रही हो। मैं बैठने लगा तो वह बोली, ''आओ, आपको साधना वाला कमरा दिखाऊँ।''
      वह कमरा बहुत साफ़-सुथरा था। अंदर अगरबत्ती जल रही थी। हम जूते उतारकर अंदर गए थे। कोई फर्नीचर नहीं था। पूरे फर्श पर कालीन के ऊपर सफेद चादरें बिछी थीं। कोने में बिछे गद्दे पर सितार, रिकार्ड प्लेयर और करीब ही हारमोनियम पड़ा था। मुझे पर ऐसा प्रभाव पड़ा जैसे किसी धार्मिक स्थान में प्रवेश करने पर पड़ता है। मैं भावुक-सा हो गया। तभी उसने मेरा हाथ पकड़कर चूम लिया। मैं तो पागल ही हो गया। मैं सहमते-डरते उसके करीब हुआ तो उसने अपने ब्लाउज के बटन खोल दिए। नीचे बारीक-सी बनियान पहन रखी थी। उसमें से जिस्म का गोरा रंग और आकार दिखाई देता था। उसकी छातियाँ इतनी सुंदर थीं कि मैंने अब तक दुनिया की किसी औरत की नहीं देखी थीं। तस्वीरों में भी नहीं। मैं शैदाई-सा हो गया। मैं आगे बढ़ने लग पड़ा। उसने रोक दिया। आँखें मूंदकर इन्कार में सिर हिला दिया। मेरा हाल बहुत बुरा था। मैं इशारों से मिन्नतें करने लगा। तभी, बाहर कोई खटका हुआ। पड़ोसियों की जवान लड़की यूँ ही मिलने आई थी। उसके साथ मेरा परिचय करवाते हुए उसने मेरी इतनी तारीफें क़ीं कि मैं शर्मिन्दा-सा हो गया। शीघ्र ही उसके घर से निकल आया।
      इस घटना ने मेरे जीवन की धारा ही बदल दी। मैं दफ्तर में काम करता, घर में पढ़ता-लिखता, मित्रों से गप्पें मारता। सबकुछ ठीक होता। पर मन उसके घर जाने के लिए उतावला रहता। एक तरफ तो ज़िन्दगी में दूसरी व्यस्तताओं में फंसा महसूस करके टेंशन बढ़ती थी और दूसरी तरफ यह नया बखेड़ा सभी टेंशनों को और अधिक बढ़ा देता था।
      मेरी ऐसी हालत विशेष तौर पर उस दिन से हो गई थी जब मैं उसके घर में अड़कर बैठ गया था। वह बहुत बेदिली से राज़ी हुई थी। बाद में मुझे इसका अफ़सोस भी था और इस बात का विश्वास भी कि यह उसका गुस्से भरा नाटक-सा था। हमारी मुलाकात आधे घंटे की थी सिर्फ़। लेकिन इतने समय में ही कितने भूचाल आ गए थे। बहुत कुछ फटाफट हो गया था। अब याद करता हूँ तो लगता है कि फिल्म के सीन इतनी शीघ्रता से गुज़रे थे कि याद करना कठिन है। उसमें सबकुछ नरम नरम और आनंदभरा ही नहीं था, कुछ रूखा, कसैला और दुखदायी भी था। अपने आप को शर्मिन्दा करने वाला भी था।
      जब यह नाटक-सा हम कई बार दुहरा चुके थे तो मैं काफी नार्मल हो गया था। मेरे अंदर काम करने की शक्ति बढ़ गई थी। जीवन में रस भरता महसूस होता था। जब कभी मैं उससे मिलने में ज़रा-सा भी आलस्य करता था तो वह किसी न किसी ढंग से मुझे संदेशा भेज देती थी। मेरे जाने पर यदि उसका पति घर में होता था तो वह उसको किसी ऐसे काम पर भेज देती थी जिसमें करीब पौना घंटा लग जाए। वह उससे डरता प्रतीत होता था।
      कभी कभी जब वह मुझे प्रेम करती, मुझे खाना खिलाती, मेरी सेहत या मेरे लिबास के बारे में सोचते हुए बातें करती तो मुझे उसमें से माँ की ममता का सुख मिलता था। वह मेरे बच्चों के बारे में भी सोचती थी। मैं काफी समय से अपने घर से दूर था। अन्य घरवालों का तो अधिक नहीं, पर अपनी पत्नी का ख़याल आता रहता था। मुझे हर मानसिक कमी के समय अपनी पत्नी याद आती थी। उसके पास जाकर मुझे यह कमी पूरी होती लगती थी। यह सोच मुझे बड़ा सुख देती थी।
      फिर वे जल्द ही रतलाम चले गए थे। यह झूठी बात कभी मुझे भी सच ही लगती है। वैसे सच यह था कि उनके घर में बहुत क्लेश पड़ गया था। शायद उसके पति को शक हो गया था। मैं जब भी जाता था, वह कई बार ऊपर से आ जाता था। हम चाय पी रहे होते या बातें कर रहे होते, उसका पति बहाना-सा खोजकर लड़ पड़ता था। मेरा वहाँ बैठना कठिन हो जाता था और मैं चुपचाप उठकर चल देता था। पीछे से उनकी आवाज़ें सुनाई देती रहती थीं। फिर उनका तबादला हो गया था। रतलाम का नहीं, किसी दूसरी जगह का। फिर वह दुबारा मुझसे नहीं मिली।
(जारी)

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पंजाबी उपन्यास



बलबीर मोमी अक्तूबर 1982 से कैनेडा में प्रवास कर रहे हैं। वह बेहद सज्जन और मिलनसार इंसान ही नहीं, एक सुलझे हुए समर्थ लेखक भी हैं। प्रवास में रहकर पिछले 19-20 वर्षों से वह निरंतर अपनी माँ-बोली पंजाबी की सेवा, साहित्य सृजन और पत्रकारिता के माध्यम से कर रहे हैं। पाँच कहानी संग्रह [मसालेवाला घोड़ा(1959,1973), जे मैं मर जावां(1965), शीशे दा समुंदर(1968), फुल्ल खिड़े हन(1971)(संपादन), सर दा बुझा(1973)],तीन उपन्यास [जीजा जी(1961), पीला गुलाब(1975) और इक फुल्ल मेरा वी(1986)], दो नाटक [नौकरियाँ ही नौकरियाँ(1960), लौढ़ा वेला (1961) तथा कुछ एकांकी नाटक], एक आत्मकथा - किहो जिहा सी जीवन के अलावा अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। मौलिक लेखन के साथ-साथ मोमी जी ने पंजाबी में अनेक पुस्तकों का अनुवाद भी किया है जिनमे प्रमुख हैं सआदत हसन मंटो की उर्दू कहानियाँ- टोभा  टेक सिंह(1975), नंगियाँ आवाज़ां(1980), अंग्रेज़ी नावल इमिग्रेंट का पंजाबी अनुवाद आवासी(1986), फ़ख्र जमाल के उपन्यास सत गवाचे लोक का लिपियंतर(1975), जयकांतन की तमिल कहानियों का हिन्दी से पंजाबी में अनुवाद।
देश विदेश के अनेक सम्मानों से सम्मानित बलबीर मोमी ब्रैम्पटन (कैनेडा) से प्रकाशित होने वाले पंजाबी अख़बारख़बरनामा (प्रिंट व नेट एडीशन) के संपादक हैं।

आत्मकथात्मक शैली में लिखा गया यह उपन्यास पीला गुलाब भारत-पाक विभाजन की कड़वी यादों को समेटे हुए है। विस्थापितों द्बारा नई धरती पर अपनी जड़ें जमाने का संघर्ष तो है ही, निष्फल प्रेम की कहानी भी कहता है। कथा पंजाब में इसका धारावाहिक प्रकाशन करके हम प्रसन्नता अनुभव कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस उपन्यास की आठवीं किस्त…
- सुभाष नीरव


पीला गुलाब
बलबीर सिंह मोमी

हिंदी अनुवाद
सुभाष नीरव



13

इतवार और सोमवार का पूरा दिन मैं अपने गाँव में बिता कर शहर जाने वाला था। माँ ने मेरे लिए दो वक्त क़ा दूध रख कर खोया बनाया था। खोये में बेसन मिलाकर पीपी भर दी थी। कुछ और कपड़े सिलाने के लिए मैंने माँ से करीब पचास रुपये भी ले लिए। मुझे पता था कि माँ इन पैसों के बारे में बापू से कोई बात नहीं करेगी। एक दूसरे झोले में माँ ने ताजा कद्दू, भिंडियाँ और टींडे तुड़वाकर डाल दिए थे जिन्हें मुझे गाँव की सौगात के रूप में भाभी के घर पहुँचाना था।
      यद्यपि शहर में सब्ज़ी का कोई अभाव नहीं था, पर इस तरह गाँव से भेजी सब्ज़ी में एक तरह की अपनापन झलकता था।
      बातें करते-करते मैंने माँ से भाई के घर जाने के बारे में भी पूछ लिया था। माँ को कोई एतराज़ नहीं था सिवाय इसके कि शहर आख़िर शहर ही होता है। आख़िरी अनुमति बापू से ही लेनी थी। बापू नई ज़मीन पर गया हुआ था।
      चलते समय माँ दरवाज़े तक मेरे साथ आई और मेरे सिर पर प्यार से हाथ फेरा और माथा चूमा। जब मैं दरवाजे में से निकलकर बाहर वाली गली में निकलने ही लगा था तो मेरी नज़र साथ वाले दरवाजे पर चली गई। मैंने देखा, मुक्ति बड़ी हसरतभरी नज़रों से मेरी तरफ देख रही थी। दो आँसू उसकी आँखों में अटके हुए थे जो दरवाज़े में से बाहर पैर रखते ही बह चले थे। स्टेशन तक ये आँसू भरी आँखें मुझे दिखाई देती रहीं। गाड़ी में सामने की सीट पर बैठी एक नौजवान औरत पता नहीं क्या सोच रही थी। कभी कभी वह अपना मुँह दुपट्टे से ढक लेती। दुपट्टा फिसल कर फिर नीचे गिर पड़ता। इससे उसकी कमज़ोर मानसिक अवस्था का पता चलता था। मैंने बोरियत से बचने के लिए थैले में से अर्थ-शास्त्र की किताब निकालकर पढ़नी शुरू कर दी। लेकिन मेरा ध्यान किताबी ज्ञान से बागी होकर फिर गाँव में पहुँच गया। आँसुओं से भरी आँखें, और कोई यूँ आधी रात के समय मेरे सिर के बालों में उंगलियाँ फेरता था। वह कौन-सी शक्ति थी जो उसे लोक लाज से ऊपर उठकर उसको मेरे पास ले आई थी। यह मुझे क्या होता जा रहा था। मेरी आँखें भी तर होती जा रही थीं। मैंने किताब एक तरफ रख दी और पैंट की जेब में से रूमाल निकालकर आँखें पौंछीं। सामने बैठी औरत ने अपने आप ही किताब उठाकर पन्ने उलटे-पलटे और फिर उसे वहीं रख दिया।
      ''भाजी, तुम कहाँ पढ़ते हो ?'' उसने बड़े धैर्य से मुझसे पूछा।
      ''फीरोजपुर कालेज में।'' मैंने बड़ी गंभीरता से जवाब दिया।
      ''मेरा भाई भी कालेज में पढ़ता है।'' उसने बात आगे बढ़ाई।
      मेरी समझ में नहीं आया कि अब मैं क्या कहूँ। पर अधिक देर होने से पहले ही मैंने उससे पूछ लिया -
      ''कहाँ पढ़ता है ?''
      ''अंबरसर, खालसा कालेज में।''
      ''अमृतसर तो बहुत दूर है।'' मैंने कहा।
      ''मेरे मायके वाले अंबरसर के नज़दीक ही एक गाँव में हैं। रोज़ पढ़कर साइकिल से घर आ जाता है।''
      ''फिर तो खर्चा भी कम ही होता होगा।'' मैंने बिना सोचे-समझे पूछ लिया।
      ''उसकी तो बल्कि फीस भी माफ है। कालेज वाले कहते थे, वजीफा भी देंगे। उसको खेलों का बड़ा शौक है।''
      ''फिर तो बड़ी मौज है।'' मैंने कहा।
      गाड़ी धीरे होते-होते रुक गई। मैंने खिड़की में से बाहर देखा। कोई बरसाती नाले की मरम्मत हो रही थी। गाड़ी फिर चल पड़ी। उस नौजवान औरत का दिल मेरे साथ खुल कर बातें करने को कर रहा था। परंतु मेरी सोचों की सुई दुबारा पलकों से ढके आँसुओं पर जा रुकती थी।
      स्टेशन आया। उस नौजवान औरत ने हैंडिल वाला झोला पकड़ा और हम आगे-पीछे गाड़ी में से उतर गए। स्टेशन से बाहर तक हम दोनों साथ-साथ ही आए।
      ''भाजी, हम बगदादी दरवाज़े के अंदर मसीत(मस्जिद) में रहते हैं। कभी आते-जाते मिल जाना।''
      ''अच्छा...।'' मैंने सहज ही कहा और रिक्शा वाले को कालेज चलने के लिए आवाज़ दी। उसने रिक्शा खींचना आरंभ किया और मैं देख रहा था कि वह औरत अभी भी मुझे हसरत भरी नज़रों से देख रही थी।
      ''ये आपके साथ नहीं थे ?'' रिक्शा वाले ने पूछा।
      ''हाँ...।'' मैंने बहुत धीमे स्वर में कहा। बार-बार मुझे ऐसा लग रहा था मानो मैं उसकी किसी बात को अनसुनी करके दौड़ गया होऊँ।
      कालेज से दो फर्लांग पहले ही उतर कर मैं भाई के घर को चला गया। बच्चे 'चाचा जी, चाचा जी' कहकर मेरे से चिपट गए। भाभी ने रस्मी तौर पर एक समझदार औरत की तरह सारे घर की खैर-ख़बर पूछी। मैंने झिझकते झिककते सब्जियों वाला थैला भाभी को थमा दिया। ऐसा करते हुए मैं हीनता का शिकार होता जा रहा था। भाभी ने नौकर को चाय के लिए कहा और मेरे संग मीठी-मीठी बातें करने लग पड़ी। हमारे बातें करते करते धोबिन आ गई। उसने कपड़ों वाली गाँठ ड्राइंग रूम में ही हमारे सामने खोल कर रख दी। भतीजी ने अल्मारी में से कॉपी लाकर भाभी को पकड़ा दी। भाभी बोलती गई और धोबिन गिन गिनकर कपड़े एक तरफ रखती गई। जब यह काम खत्म हुआ तो फिर गंदे-मैले कपड़ों का ढेर धोबिन के सामने लगा दिया गया जिन्हें मैं कॉपी पर तरतीबवार लिखता रहा और धोबिन उन्हें एक चादर में फेंकती रही। धोबिन ने सारे कपड़ों को चादर में बाँध लिया। उसने नीला लहंगा और ऊँचा ब्लाउज पहन रखा था। देखने में वह अधिक उम्र की नहीं लगती थी, पर ढीली जवानी के चिन्ह साफ़ नज़र आते थे।
      ''सुना गौरी, अब तेरा घरवाला तुझे पीटता तो नहीं ?''
      ''वैसे ही पीटता है मालकिन। रोज दारू पीता है, रोज पीटता है।''
      ''बच्चे का क्या हाल है ?''
      ''वो तो बीमार है जी। खाँसी और बुखार तो पीछा ही नहीं छोड़ते।''
      फिर काफी देर तक धोबिन भाभी के आगे घरेलू जीवन के दुखड़ों की चर्चा करती रही। मैं धोबिन की दुखभरी बातें बड़े गौर से सुन रहा था और बीच बीच में धोबी के रूखे व्यवहार के बारे में भी सोचता रहा था। मेरे लिए यह सबकुछ नया था।
      उठते समय धोबिन ने भाभी से पूछा-
      ''ये कौन हैं मालकिन ?''
      भाभी ने हँसकर उत्तर दिया-
      ''यह मेरा देवर है। देख, है न कितना सुंदर। शरीफ। मैं इसके साथ विवाह करवा लूँगी। सरदार तो अब बूढ़ा हो गया है।''
      धोबिन एक क्षण मुस्करा कर चली गई और मेरे साथ तो पूछो ही नहीं, क्या हुआ।
      कई दिनों तक मैं अपनी माँओं जैसी भाभी के आगे आँखें न उठा सका और भाभी के खुले दिल पर अत्यंत हैरान होता रहा।
(जारी…)

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‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश

‘अनुवाद घर’ को समकालीन पंजाबी साहित्य की उत्कृष्ट कृतियों की तलाश है। कथा-कहानी, उपन्यास, आत्मकथा, शब्दचित्र आदि से जुड़ी कृतियों का हिंदी अनुवाद हम ‘अनुवाद घर’ पर धारावाहिक प्रकाशित करना चाहते हैं। इच्छुक लेखक, प्रकाशक ‘टर्म्स एंड कंडीशन्स’ जानने के लिए हमें मेल करें। हमारा मेल आई डी है- anuvadghar@gmail.com

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव

छांग्या-रुक्ख (दलित आत्मकथा)- लेखक : बलबीर माधोपुरी अनुवादक : सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21-ए, दरियागंज, नई दिल्ली-110002, मूल्य : 300 रुपये

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

पंजाबी की चर्चित लघुकथाएं(लघुकथा संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
शुभम प्रकाशन, एन-10, उलधनपुर, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032, मूल्य : 120 रुपये

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव

रेत (उपन्यास)- हरजीत अटवाल, अनुवादक : सुभाष नीरव
यूनीस्टार बुक्स प्रायवेट लि0, एस सी ओ, 26-27, सेक्टर 31-ए, चण्डीगढ़-160022, मूल्य : 400 रुपये

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव

पाये से बंधा हुआ काल(कहानी संग्रह)-जतिंदर सिंह हांस, अनुवादक : सुभाष नीरव
नीरज बुक सेंटर, सी-32, आर्या नगर सोसायटी, पटपड़गंज, दिल्ली-110032, मूल्य : 150 रुपये

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह) संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव

कथा पंजाब(खंड-2)(कहानी संग्रह)  संपादक- हरभजन सिंह, अनुवादक- सुभाष नीरव
नेशनल बुक ट्रस्ट, इंडिया, नेहरू भवन, 5, इंस्टीट्यूशनल एरिया, वसंत कुंज, फेज-2, नई दिल्ली-110070, मूल्य :60 रुपये।

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव

कुलवंत सिंह विर्क की चुनिंदा कहानियाँ(संपादन-जसवंत सिंह विरदी), हिंदी अनुवाद : सुभाष नीरव
प्रकाशक : नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, वर्ष 1998, 2004, मूल्य :35 रुपये

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव

काला दौर (कहानी संग्रह)- संपादन व अनुवाद : सुभाष नीरव
आत्माराम एंड संस, कश्मीरी गेट, दिल्ली-1100-6, मूल्य : 125 रुपये

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव

ज़ख़्म, दर्द और पाप(पंजाबी कथाकर जिंदर की चुनिंदा कहानियाँ), संपादक व अनुवादक : सुभाष नीरव
प्रकाशन वर्ष : 2011, शिव प्रकाशन, जालंधर(पंजाब)

पंजाबी की साहित्यिक कृतियों के हिन्दी प्रकाशन की पहली ब्लॉग पत्रिका - "अनुवाद घर"

"अनुवाद घर" में माह के प्रथम और द्वितीय सप्ताह में मंगलवार को पढ़ें - डॉ एस तरसेम की पुस्तक "धृतराष्ट्र" (एक नेत्रहीन लेखक की आत्मकथा) का धारावाहिक प्रकाशन…

समकालीन पंजाबी साहित्य की अन्य श्रेष्ठ कृतियों का भी धारावाहिक प्रकाशन शीघ्र ही आरंभ होगा…

"अनुवाद घर" पर जाने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें - http://www.anuvadghar.blogspot.com/

व्यवस्थापक
'अनुवाद घर'

समीक्षा हेतु किताबें आमंत्रित

'कथा पंजाब’ के स्तम्भ ‘नई किताबें’ के अन्तर्गत पंजाबी की पुस्तकों के केवल हिन्दी संस्करण की ही समीक्षा प्रकाशित की जाएगी। लेखकों से अनुरोध है कि वे अपनी हिन्दी में अनूदित पुस्तकों की ही दो प्रतियाँ (कविता संग्रहों को छोड़कर) निम्न पते पर डाक से भिजवाएँ :
सुभाष नीरव
372, टाइप- 4, लक्ष्मीबाई नगर
नई दिल्ली-110023

‘नई किताबें’ के अन्तर्गत केवल हिन्दी में अनूदित हाल ही में प्रकाशित हुई पुस्तकों पर समीक्षा के लिए विचार किया जाएगा।
संपादक – कथा पंजाब

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